एक समय की बात है। एक चिड़िया एक बड़े से पेड़ की डाली पर अपना घोंसला बनाने के लिए कुछ तिनके इकट्ठे कर रही थी। उसे देख एक हवा का झोंका लहराते हुए उसके पास आकर पूछने लगा। हे चिड़िया रानी क्या तुम मेरे साथ उड़ना पसंद करोगी ? चिड़िया ने क्षण का विलम्ब न करते हुए जवाब दिया, नहीं नहीं अभी नहीं, मुझे घोंसला बनाना है। तुम फिर कभी आना अभी मुझे फ़ुरसत नहीं।
फिर कुछ दिन बाद, हवा का झोंका आया। देखा की चिड़ियाने अपना सुन्दरसा घोंसला बनाया था। और उसके बच्चे घोसले में सुरक्षित थे। उस झोंके ने पूछा हे चिड़िया रानी, क्या अब तुम मेरे साथ उड़ना पसंद करोगी ? मैं अभी अभी एक सुन्दर हरे भरे खेत से झूल कर आया हूँ। तुम कहो तो, मैं तुम्हें भी वहाँ ले जाऊँगा, जहा तुम्हारे पसंद के दाने उगते है। क्या तुम आओगी ? चिड़िया ने कहा अब कहा फुरसत, बच्चों को खिलाना, पिलाना है। तुम बाद में आना, मै जरूर आउंगी। हवा के झोंके ने कहा, तब तो बहुत देर हो जाएगी। खेत खलियान सुख जाएंगे और तुम्हें हरे भरे दाने भी नहीं मिलेंगे। लेकिन चिड़िया ने ,तुम फिर कभी आना कहकर, उसे टाल दिया।
कुछ दिनों बाद, बच्चे बड़े हुए, पंख फैलाना सिख गए और एक दिन उड़ गए हमेशा हमेशा हमेशा के लिए। एक दिन पेड़ की वह डाली भी काट दी गई, जहाँ चिड़िया का घोंसला था। घोंसला निचे गिरकर बिखर गया। चिडिया पेड़ की दूसरी डाली पर गुमसुम बैठ, हवा के झोंके का इंतज़ार कर रही थी। भरी आँखों से कहने लगी, देखो मैं आज उड़ना चाहती हूँ, क्या तुम आओगे, मुझे उस हरे भरे खेत में ले जाओगे, जहा मेरी पसंद के दाने उगते हैं ? वो देर तक इंतज़ार करती रही, लेकिन हवा का झोंका आया नहीं। चिड़िया सुन्न होकर मन ही मन रोकर कहने लगी, जिस बच्चों के लिए मै उडी नहीं, वो बच्चे अब हमेशा हमेशा के लिए उड़ गए। मैंने जिस घोंसले के लिए अपने अरमान बिखराए, वो घोंसला भी अब बिखर गया। जिस चीज़ को जोड़ने और सँजोने की कोशिश की वह टूट गयी।
चिडिया ये सब सोच ही रही थी, तब एक हवा का झोंका आया। उसे देख चिड़िया ने ख़ुश होकर कहा अब मै तैयार हूँ, क्या मैं तुम्हारे साथ उड़ सकती हूँ। उस हवा के झोंके ने कहा, देखो चिड़िया रानी, तुम्हारे पंख कमज़ोर हो चुके हैं और मैं तेज़ हवा का झोंका हूँ, तुम मेरे बहाव को सह नहीं पाओगी और वैसे भी मैं बहुत दूर जा रहा हूँ, तुम वहाँ तक उड़ नहीं पाओगी। बेहतर यही है, तुम यही रुको और तेज हवा का झोंका तेज़ी से निकल गया। यह देख चिड़िया चीखी, चिल्लायी, पछताई और रोने लगी, अपने नसीब को कोसने लगी। काश मैंने समय रहते ही, हवा के झोंके की की बात मान ली होती।
ज़िंदगी हवा के झोंके जैसी होती है। बार बार मौक़े देती रहती है। उड़ना ना उड़ना आप पर निर्भर है।
सागर की लहरे, एक छोटे कंकड को बडी तेजी से उछल उछल कर किनारे तक ले जा रही थी। उस कंकड को बडी खुशी हुई, ये सोचकर कि मै इन लहरो के किसी काम का तो हु नहीं, फिर भी ये लहरे कितना चाहती है मुझे। तभी तो मुझे अपने उपर उठाकर मेरे साथ आनंद से खेल रही है। कंकड ने और सोचा की 'मै कितना भाग्यशाली हूँ, जो मुझे ये तेज लहरे मीली, मेरा तो जीवन ही सफल हुँआ। उसे क्या पता था, जो लहरे उसके साथ आनंद से खेल रही है उनका तो यह स्वभाव है, की जो उनके काम का न हो, जो उन्हें भारी लगे, वो उसे दरकिनार कर देती है। फिर सागर में विलीन होकर, अपने जैसो के साथ ही असली आनंद ले पाती है। जब लहरे किनारे की और बढ़ती है, उन्हें भी लगता है वो खुद बढ़ रही है। लेकिन सच तो यह है की हवा उन्हे किनारे की और ढ़केल देती है।
वास्तविकता में देखा जाये तो ये एक फ़ोर्सफूल प्रोसेस है, मतलब हमारी भाषा मे जबरजस्ती की प्रक्रिया। पर देखने वालो ने, देखने मे ही गलती कर दी, लहरो को देखकर, वो हमेशा अपनी भावनावो के आवेश में, यही कहते और लिखते भी है, की लहरो को किनारा आकर्षित करता है, इसीलिए वो बार बार किनारे की ओर दौडती है। पर ये सही नहीं है। मेरी सोच तो ये है की, लहरो को किनारा कभी भी पसंद नहीं होता। इसीलिए उसे जो नापसंद है, वो भी वो बहा कर किनारेपर छोड देती है। उस भोलेभाले कंकड की भी यही दशा हुई उसे इतना उछलकर इसीलिए ले जा रहा था, ताकि वो दरकिनार हो सके ।
वो कंकड किनारेपर, लहरो के इंतजार मे रुका हुआ था। उसे लगा कि मुझे, लहरे वापस सागर ले जायेगी। और सागर में मेरे साथ आनंद से खेलेगी, पर जब भी लहरे आती, वो कंकड के थोडी दुरी से, सागर लौट जाती। कंकड ने बहुत इंतजार किया, चीखा, चिल्लाया पर किसी ने उसकी ना सुनी। ना खुदसे उठ पाता, ना उड पाता, बस वही पडा रहा। सुखा, गरम, ठंडा हर मौसम के साथ खुद को ढालता रहा।
अब कंकड ने, लहरो की उम्मीद छोड़ दी, उसने किनारे को अपना जीवन बना लिया। और जब गौर से किनारे को देखा, तो उसे पता चला की, उसके जैसे अनगीनत कंकड सागर कि लहरो ने, किनारेपर छोड दिए है। ये एक निरंतर प्रक्रिया है। उसने उस प्रक्रिया का स्वागत किया, मान लिया की वो भी एक इस प्रकृति का हिस्सा है। जैसा प्रकृति का नियम, वैसा गमन होना चाहिये। इसे मन मे ठानकर, किनारे को ठिकाना मान कर डटा रहा। उसने अब अपनी चारो ओर, बडी ध्यान से देखा की उन्ही अनगिनत कंकडो से, एक विशाल सागर का, किनारा बना है। किनारे की एक नई दुनिया बन गई है।और वो उसी नई दुनिया का एक हिस्सा था। एक श्याम, उस कंकड ने शांत मन से, अपने जैसे एक कंकड से पुछा, क्या तुम भी मेरे जैसा सोचते हो, की लहरे हमे किनारा कर देती है। तो उसने कहा हा बिलकूल ।
अब तुम ही देखो, जब लहरे किनारे की तरफ आती है, तब हवा के दबाव की जरूरत होती है। पर जब वापस जाती है, तो अपने आप, सहेज होकर जाती है। मतलब उसे सागर में ही रहना अच्छा लगता है। जीस प्रक्रिया को होने के लिए, किसी और माध्यम का दबाव होना जरूरी है, वो प्रेमपूर्वक होने का प्रतीक नही हो सकती। इस सत्य का स्विकार ही, अंतिम सत्त्य हो सकता है। दोनो कंकडोने हि नहीं, बल्की सारे किनारे ने ये स्वीकार कीया, और शांत हो गए। जब रात होती, तो किनारे के कंकड, चमकीले होने के कारन बडे सुंदर लगते . चाँद की रोशनी में चमकने की उनकी भी अपनी विशेषताये थी। सागर का पानी रात में डरावना लगता, पर किनारा सुंदर, शांत, शितल और चमकीला।
प्रकृति बडा खेल खेलती है। जब कुछ जीव समंदर से बाहर आते, वो किनारेपर ही अपने अंडे छूपाकर रखते, जब लोग पानी मे खेल खेल के थक जाते तो वो भी किनारे पर ही सुकून पाते। लहरो के लिए कंकडो का महत्व हो ना हो, पर प्रकृति की दृष्टी मे कंकडो से, किनारा बनता और वो भी उसके दुसरे जीवो के लिए उपयोगी हो जाता है। हमे लहरो या सागर की दुनिया मे रहकर अक्सर नही देखना चाहिए .उसके परे भी जीवन होता है। और वो भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना सागर का। इस विशाल सी दुनिया मे क्या सागर, क्या किनारा एक ही तो है।
हमारा जीवन सागर के जिवन जैसा ही है। हमारे आसपास के लोग, समाज, रिश्तेदार, हमारे अपने करीबी, हमारे साथी, हमारी भावनाएं, हमारे सुख दुःख, हमारे लिये एक विशाल सागर बन जाते है। जब इसी सागर की लहरे, हमे बेमतलब समझकर दरकिनार करती है, तो हम उस किनारे के कंकड की तरह महसुस करने लगते है। हम अकेले नही है, इस सागर में, सबको दरकिनार होना ही है . और एक दिन किनारे वाली दुनिया मे जाकर चमकना भी है। तो क्या सागर, क्या किनारा ।