Search This Blog
Saturday, August 24, 2024
Sunday, July 28, 2024
हवा का झोंका और चिड़िया
एक समय की बात है। एक चिड़िया एक बड़े से पेड़ की डाली पर अपना घोंसला बनाने के लिए कुछ तिनके इकट्ठे कर रही थी। उसे देख एक हवा का झोंका लहराते हुए उसके पास आकर पूछने लगा। हे चिड़िया रानी क्या तुम मेरे साथ उड़ना पसंद करोगी ? चिड़िया ने क्षण का विलम्ब न करते हुए जवाब दिया, नहीं नहीं अभी नहीं, मुझे घोंसला बनाना है। तुम फिर कभी आना अभी मुझे फ़ुरसत नहीं।
फिर कुछ दिन बाद, हवा का झोंका आया। देखा की चिड़ियाने अपना सुन्दरसा घोंसला बनाया था। और उसके बच्चे घोसले में सुरक्षित थे। उस झोंके ने पूछा हे चिड़िया रानी, क्या अब तुम मेरे साथ उड़ना पसंद करोगी ? मैं अभी अभी एक सुन्दर हरे भरे खेत से झूल कर आया हूँ। तुम कहो तो, मैं तुम्हें भी वहाँ ले जाऊँगा, जहा तुम्हारे पसंद के दाने उगते है। क्या तुम आओगी ? चिड़िया ने कहा अब कहा फुरसत, बच्चों को खिलाना, पिलाना है। तुम बाद में आना, मै जरूर आउंगी। हवा के झोंके ने कहा, तब तो बहुत देर हो जाएगी। खेत खलियान सुख जाएंगे और तुम्हें हरे भरे दाने भी नहीं मिलेंगे। लेकिन चिड़िया ने ,तुम फिर कभी आना कहकर, उसे टाल दिया।
कुछ दिनों बाद, बच्चे बड़े हुए, पंख फैलाना सिख गए और एक दिन उड़ गए हमेशा हमेशा हमेशा के लिए। एक दिन पेड़ की वह डाली भी काट दी गई, जहाँ चिड़िया का घोंसला था। घोंसला निचे गिरकर बिखर गया। चिडिया पेड़ की दूसरी डाली पर गुमसुम बैठ, हवा के झोंके का इंतज़ार कर रही थी। भरी आँखों से कहने लगी, देखो मैं आज उड़ना चाहती हूँ, क्या तुम आओगे, मुझे उस हरे भरे खेत में ले जाओगे, जहा मेरी पसंद के दाने उगते हैं ? वो देर तक इंतज़ार करती रही, लेकिन हवा का झोंका आया नहीं। चिड़िया सुन्न होकर मन ही मन रोकर कहने लगी, जिस बच्चों के लिए मै उडी नहीं, वो बच्चे अब हमेशा हमेशा के लिए उड़ गए। मैंने जिस घोंसले के लिए अपने अरमान बिखराए, वो घोंसला भी अब बिखर गया। जिस चीज़ को जोड़ने और सँजोने की कोशिश की वह टूट गयी।
चिडिया ये सब सोच ही रही थी, तब एक हवा का झोंका आया। उसे देख चिड़िया ने ख़ुश होकर कहा अब मै तैयार हूँ, क्या मैं तुम्हारे साथ उड़ सकती हूँ। उस हवा के झोंके ने कहा, देखो चिड़िया रानी, तुम्हारे पंख कमज़ोर हो चुके हैं और मैं तेज़ हवा का झोंका हूँ, तुम मेरे बहाव को सह नहीं पाओगी और वैसे भी मैं बहुत दूर जा रहा हूँ, तुम वहाँ तक उड़ नहीं पाओगी। बेहतर यही है, तुम यही रुको और तेज हवा का झोंका तेज़ी से निकल गया। यह देख चिड़िया चीखी, चिल्लायी, पछताई और रोने लगी, अपने नसीब को कोसने लगी। काश मैंने समय रहते ही, हवा के झोंके की की बात मान ली होती।
ज़िंदगी हवा के झोंके जैसी होती है। बार बार मौक़े देती रहती है। उड़ना ना उड़ना आप पर निर्भर है।
- रानमोती / Ranmoti
Wednesday, July 17, 2024
क्या सागर, क्या किनारा।
सागर की लहरे, एक छोटे कंकड को बडी तेजी से उछल उछल कर किनारे तक ले जा रही थी। उस कंकड को बडी खुशी हुई, ये सोचकर कि मै इन लहरो के किसी काम का तो हु नहीं, फिर भी ये लहरे कितना चाहती है मुझे। तभी तो मुझे अपने उपर उठाकर मेरे साथ आनंद से खेल रही है। कंकड ने और सोचा की 'मै कितना भाग्यशाली हूँ, जो मुझे ये तेज लहरे मीली, मेरा तो जीवन ही सफल हुँआ। उसे क्या पता था, जो लहरे उसके साथ आनंद से खेल रही है उनका तो यह स्वभाव है, की जो उनके काम का न हो, जो उन्हें भारी लगे, वो उसे दरकिनार कर देती है। फिर सागर में विलीन होकर, अपने जैसो के साथ ही असली आनंद ले पाती है। जब लहरे किनारे की और बढ़ती है, उन्हें भी लगता है वो खुद बढ़ रही है। लेकिन सच तो यह है की हवा उन्हे किनारे की और ढ़केल देती है।
वास्तविकता में देखा जाये तो ये एक फ़ोर्सफूल प्रोसेस है, मतलब हमारी भाषा मे जबरजस्ती की प्रक्रिया। पर देखने वालो ने, देखने मे ही गलती कर दी, लहरो को देखकर, वो हमेशा अपनी भावनावो के आवेश में, यही कहते और लिखते भी है, की लहरो को किनारा आकर्षित करता है, इसीलिए वो बार बार किनारे की ओर दौडती है। पर ये सही नहीं है। मेरी सोच तो ये है की, लहरो को किनारा कभी भी पसंद नहीं होता। इसीलिए उसे जो नापसंद है, वो भी वो बहा कर किनारेपर छोड देती है। उस भोलेभाले कंकड की भी यही दशा हुई उसे इतना उछलकर इसीलिए ले जा रहा था, ताकि वो दरकिनार हो सके ।
वो कंकड किनारेपर, लहरो के इंतजार मे रुका हुआ था। उसे लगा कि मुझे, लहरे वापस सागर ले जायेगी। और सागर में मेरे साथ आनंद से खेलेगी, पर जब भी लहरे आती, वो कंकड के थोडी दुरी से, सागर लौट जाती। कंकड ने बहुत इंतजार किया, चीखा, चिल्लाया पर किसी ने उसकी ना सुनी। ना खुदसे उठ पाता, ना उड पाता, बस वही पडा रहा। सुखा, गरम, ठंडा हर मौसम के साथ खुद को ढालता रहा।
अब कंकड ने, लहरो की उम्मीद छोड़ दी, उसने किनारे को अपना जीवन बना लिया। और जब गौर से किनारे को देखा, तो उसे पता चला की, उसके जैसे अनगीनत कंकड सागर कि लहरो ने, किनारेपर छोड दिए है। ये एक निरंतर प्रक्रिया है। उसने उस प्रक्रिया का स्वागत किया, मान लिया की वो भी एक इस प्रकृति का हिस्सा है। जैसा प्रकृति का नियम, वैसा गमन होना चाहिये। इसे मन मे ठानकर, किनारे को ठिकाना मान कर डटा रहा। उसने अब अपनी चारो ओर, बडी ध्यान से देखा की उन्ही अनगिनत कंकडो से, एक विशाल सागर का, किनारा बना है। किनारे की एक नई दुनिया बन गई है।और वो उसी नई दुनिया का एक हिस्सा था। एक श्याम, उस कंकड ने शांत मन से, अपने जैसे एक कंकड से पुछा, क्या तुम भी मेरे जैसा सोचते हो, की लहरे हमे किनारा कर देती है। तो उसने कहा हा बिलकूल ।
अब तुम ही देखो, जब लहरे किनारे की तरफ आती है, तब हवा के दबाव की जरूरत होती है। पर जब वापस जाती है, तो अपने आप, सहेज होकर जाती है। मतलब उसे सागर में ही रहना अच्छा लगता है। जीस प्रक्रिया को होने के लिए, किसी और माध्यम का दबाव होना जरूरी है, वो प्रेमपूर्वक होने का प्रतीक नही हो सकती। इस सत्य का स्विकार ही, अंतिम सत्त्य हो सकता है। दोनो कंकडोने हि नहीं, बल्की सारे किनारे ने ये स्वीकार कीया, और शांत हो गए। जब रात होती, तो किनारे के कंकड, चमकीले होने के कारन बडे सुंदर लगते . चाँद की रोशनी में चमकने की उनकी भी अपनी विशेषताये थी। सागर का पानी रात में डरावना लगता, पर किनारा सुंदर, शांत, शितल और चमकीला।
प्रकृति बडा खेल खेलती है। जब कुछ जीव समंदर से बाहर आते, वो किनारेपर ही अपने अंडे छूपाकर रखते, जब लोग पानी मे खेल खेल के थक जाते तो वो भी किनारे पर ही सुकून पाते। लहरो के लिए कंकडो का महत्व हो ना हो, पर प्रकृति की दृष्टी मे कंकडो से, किनारा बनता और वो भी उसके दुसरे जीवो के लिए उपयोगी हो जाता है। हमे लहरो या सागर की दुनिया मे रहकर अक्सर नही देखना चाहिए .उसके परे भी जीवन होता है। और वो भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना सागर का। इस विशाल सी दुनिया मे क्या सागर, क्या किनारा एक ही तो है।
हमारा जीवन सागर के जिवन जैसा ही है। हमारे आसपास के लोग, समाज, रिश्तेदार, हमारे अपने करीबी, हमारे साथी, हमारी भावनाएं, हमारे सुख दुःख, हमारे लिये एक विशाल सागर बन जाते है। जब इसी सागर की लहरे, हमे बेमतलब समझकर दरकिनार करती है, तो हम उस किनारे के कंकड की तरह महसुस करने लगते है। हम अकेले नही है, इस सागर में, सबको दरकिनार होना ही है . और एक दिन किनारे वाली दुनिया मे जाकर चमकना भी है। तो क्या सागर, क्या किनारा ।
- रानमोती
Saturday, July 13, 2024
ईश्वर का संवाद, क्यों हम दुखी हैं |
एक दिन एक इंसान अकेले बैठकर रो रहा था। और ईश्वर को कोस रहा था।
उसने कहा, प्रभू मेरे पास बंगला, गाडी, बीबी बच्चे, दोस्त, रिश्तेदार,नौकर चाकर सब है। फिर भी मै दुखी हूँ। ऐसा क्या कारण है, जो मुझे सबकुछ होते हुए भी दुखी रखता हैं। उसकी बाते सुनकर, ईश्वर मन ही मन मुस्कुराये और उन्होंने ठान लिया की आज इसे ज्ञान का अमृत पिला ही देता हूँ।
और तभी इंन्सान ने कहा, प्रभु क्या आप मुझपर प्रसन्न हुए हो, जो मुस्कुरा रहे हो। तो प्रभु ने कहाँ प्रसन्नता ही मेरा स्वभाव है। और रही बात तुम्हारे दुःख की, तो उसका कारण भी आज मै तुम्हे बता देता हूँ। .
तुम्हारे दुःख का कारण है तुम्हारी समझ और उसमे पनपी तुम्हारी ना समझ वाली जिद्द है।
मनुष्य ने कहा प्रभू, विस्तार से कहिये। तब उसपर ईश्वर कहते है, मनुष्य को समझ और
ज्ञान न होने के कारण ओ उसी चीजो की जिद्द करता है, जिसकी उसको कोई समझ नही होती और
वो अपने जीद के कारण उसी चीज को पा लेता है। पर संभाल नही पाता ।
तुम्हे माली बनना नही आता, और बगीचे मांग लेते हो।
घर बसाना नही आता, और शहर माँग लेते हो।
प्रेम करना नहीं आता, और आत्मा माँग लेते हो।
राजा बनना नहीं आता, और सेवक माँग लेते हो।
रिश्ता बनाना नही आता, और रिश्तेदार माँग लेते हो।
दोस्ताना समझ नहीं आता, और दोस्त मांग लेते हो।
परवरीश करनी नही आती, और बच्चे माँग लेते हो।
किसीका दुःख समझ नहीं पाते, और सुख माँग लेते हो।
नारायण बन नहीं पाते, और धनलक्ष्मी माँग लेते हो।
जीवन के अर्थ से अंजान हो तुम, और एक नया जीवन माँग लेते हो।
राम के दुःख से भी लोगो को लगाव था, और रावण की सोने की लंका से घृणा।
तुम ऊपर से कितना भी जिद्दी बनकर चीजे बटोरते रहो, पर तुम्हारे अंदर जो बैठा है, उसे
तलाश राम की। इसीलिए तुम दुखी हो। मैं उन लोगो को भी वो सब दे देता हु, जो उसे संभाल नही पाते। उनकी जीद की वजह से वो मुझसे वो सब पा तो लेते है, लेकिन प् कर भी संभल नहीं पाते।
मै भी ईश्वर हूँ, ऐसे लोगो को मै ये सारी चीजे दे देता हू। और वो सब मुर्ख, इन्ही में उलझकर कर,
दुखी होते है। पर जो असली चीज है, जो जीवन का सच्चा अमृत है, वो मै उनके लिये रखता हूँ,
जो सारी चीजो के काबील हो कर भी, उन्ही चीजों को ऊपर उठाते है, जो कर्म मैंने उन्हे सोपें
है और वो अपने उसी कर्मो से अमरता पा लेते है। वो खुद एक नया जीवन बन जाते है।
#Ranmoti
Tuesday, November 21, 2023
पर्यावर्णिय बदल, मानसाच्या जाती आणि आरक्षणे
सध्या परिस्थितीचा विचार लक्षात घेता असे दिसून येते की मानसाला भविष्यामध्ये स्वत:ला माणूस म्हणून टिकून राहण्यापेक्षा स्वत:च्या जाती धर्मांची आणि विशेषता: त्याबरोबर मिळणाऱ्या आरक्षणाचीच जास्त काळजी भेडसावत आहे. एका बाजुने विचार केला तर ते बरोबर असल्यासारखे देखील भासते. कारण इतिहास व वर्तमानकाळ यावर आधारीत भविष्याकाळाचा एकंदरीत अभ्यास करुन अंदाज काढल्यास असे दिसून येते की, भुतकाळातील दलीतांच्या परिस्थितीमुळे यामध्ये बहुतांश परीवर्तन झाले. कदाचित त्यावेळेला महात्मा फुले, राजर्षी शाहु महाराज आणि डॉ. भीमराव आंबेडकरांनी आपले योगदान दिले नसते तर आज दलितांची परिस्थिती काहीशी वेगळी पाहावयास मिळाली असती.
त्यावेळेला डॉ. आंबेडकरांनी एकंदरित परिस्थितीचा अभ्यास करुन दलीतांच्या आरक्षणासाठी भारतीय संविधानामध्ये विशेष तरतुद करुन ठेवली आहे. त्याचमुळे दलितांना आपला विकास साधने शक्य झाले. परंतु, डॉ. आंबेडकरांच्या या तरतुदी मागचा बारकाईने विचार केल्यास असे लक्षात येते की, भुतकाळातील दयनीय आणि अती मागासलेली अवस्था पाहता दलितांना माणूस म्हणून समाजात जगता यावे व इतर समाजाप्रमाणे त्यांनाही विकासाची सर्व दारे उघडी व्हावीत आणि त्यांना शक्य होईल तेवढया लवकर समाजाच्या मुख्य प्रवाहात सामील करुन घेता यावे हा ऐवढाच त्या मागचा खरा हेतू डॉ. आंबेडकर यांनी ठेवला होता. त्यांनी दलितांना साथ दिली, त्यांना नविन धर्म दिला, त्यांचा धर्म स्विकारला याचा अर्थ असा नव्हता की त्यांनी दलितांनी आरक्षणाचा पुरेपुर लाभ घेऊन भविष्यामध्ये सर्व मानव जातीमध्ये उच्च पदावर जावून इतर समाजांवर वर्चस्व गाजवावे, तर सर्व माणसांना समानतेने जगता यावे, समान न्याय, समान मान, सन्मान मिळावा हाच त्या मागचा खरा हेतू होता.
मुळात आरक्षण या शब्दाची निर्मिती किंवा संकल्पना ही फक्त एका समान पातळीपर्यंत मर्यादित असावी. आरक्षण या शब्दांचा पहिला आणि दुसरा अर्थ समान पातळीपर्यंत ऐवढाच मर्यादीत असावा. परंतू आज या आरक्षणाला घेऊन परिस्थिती फार बिकट होत चालली आहे. सामाजिक समस्या, जाती-जातीमधील भेदभाव कमी होण्या ऐवजी वाढतच आहे. वर्तमानातील विविध समाजातील आरक्षणाच्या विविध मागण्या समोर येताना पाहून असे वाटते की आजच्या समाजातील माणूस हा जाती, धर्माला शस्त्र बनवून विजयी होण्याचा प्रयत्न करु पाहत आहे, हा झाला भारतातील आरक्षणाचा बहुचर्चीत मुद्दा.
जगाच्या पाठीवर विचार करता, संपूर्ण जगासमोरील एक फार मोठी भिशन समस्या म्हणजे आतंकवाद. या आतंकवादाच्या समस्यांच्या मुळापर्यंत गेल्यास असे लक्षात येते की, जगाच्या पाठीवरील बहुतांश मुस्लिम राष्ट्रांमधुन याचा जास्त प्रसार आणि प्रचार होत आहे. मुळात सर्वांत शक्तीशाली आणि दहशतवादी संघटना म्हणजे आय. एस. आय. एस. (ISIS) ह्या दहशतवादी संघटनेचा मुळ उद्देशच तो आहे की जगामध्ये जी जी मुस्लिम राष्ट्रे आहेत किंवा सर्व मुस्लिम लोकसंख्या एका छताखाली आणून संपूर्ण विश्वावर ताबा मिळवायचा. जगावर मुस्लिमांचे राज्य प्रस्तापित करायचे. हा धर्मांधवाद जगातीक पातळीवरचा असुन भिशन बनत चालला आहे. भारतामध्ये २०१४ पासून झालेल्या लोकसभा आणि विधानसभा निवडनूकी मध्ये एम. आय. एम. (MIM) या भारतीय मुस्लिम पक्षाला मिळालेल्या यशामुळे आणि धर्मावर आधारित पार पडलेल्या जनगननेमध्ये असे दिसून आले की, २००१ मधील मुस्लिम लोकसंख्येच्या तुलनेत २०११ मधील मुस्लिम लोकसंख्या ०.९ % वाढली आहे आणि आगामी जनगणनेत ती अधिक होईलच. एम. आय. एम. ची वाढती लोकप्रियता आणि मुस्लिमांमधील राज्यकर्त्याविषयी वाढणारा, असंतोष आणि वाढती मुस्लिम लोकसंख्या बघुन भारतीय हिंदूना भविष्यात भारत हे मुस्लिम राष्ट्रात परीवर्तीत होण्याची भिती निर्माण झाली आहे. या सर्वच बाबीवरुन असे झाले की माणूस पुर्णता: या जाती धर्मांच्या चक्राच्या विळख्यातून मुक्त होण्याऐवजी त्यात आणखी अडकत जाऊन स्वत: स्वत:च्या अंताला कारणीभुत होण्याची काळजी वाढत आहे.
इतिहासातील अनेक समाजसुधारकांचा विशेषत: महात्मा फुले यांच्या पुर्वीच्या समाजसुधारकांचा अभ्यास केल्यास बंहुताश समाजसुधारकांनी धर्म आणि धर्म पालणा आधारीत संघटना निर्माण करुन त्यानुसार त्या त्या धर्मांचा किंवा धर्मंग्रथांचा प्रसार आणि प्रचार केला. त्यामध्ये आर्य समाज, ब्रम्हो समाज इत्यादी हया बहुतांश संघटनामधुन हिंदू धर्मांची शिकवण व वेदच सर्वश्रेष्ठ आणि महान असल्याचे व त्याचे प्रतीपादन करण्याकडे अधिक भर दिला. अनेक संघटनांनी इंग्रजाच्या काळात ज्या ज्या हिंदूनी धर्मांतरण केले त्यांना शुद्ध करुन परत स्वधर्मांत आणण्याचे म्हणजेच आधूनीक भाषेत घर वापसीचे काम केले. यासर्व समाजसुधारकांच्या कार्यातून जातीव्यवस्थेचा सुगंध दरवळतांना आपल्याला दिसतो. मुळात त्या समाजसुधारकांनी आपल्या संघटनांची नावे देखील धर्मांवर किंवा जातीवर आधारितच ठेवण्यावर अधिक भर दिला.
महात्मा फुले यांचा विचार करता त्यांनी जी सत्यशोधक नावाची संघटना सुरु केली. हे नाव मात्र कुठल्याही समाजाचा किंवा धर्माचा उल्लेख करत नव्हते याउलट सत्य आणि मानूस हाच धर्म आणि कर्म असल्याचे प्रतिपादीत करत होते. वेगवेगळ्या जाती तर सोडा पण त्यामध्ये स्त्री किंवा पुरुष या दोन मुख्य जातीचाही उल्लेख नाही. फक्त सत्य आणि पुर्णसत्य असे प्रतीपादीत करणारे महात्मा फुले ईश्र्वर हे अनेक नसुन एकच म्हणजे निर्मिक आणि ही संपुर्ण सृष्टीच ईश्र्वर ज्याने या मानवाची पृथ्वीवर निर्मिती केले असे दर्शविते. त्यावेळेला ऐवढे आधुनिक विचार ठेवणारे फुले खरंच वास्तविक सत्य जानणारे आणि विज्ञानाची कास धरणारे होते हे दिसुन येते.
फुलें प्रमाणेच आगरकर, रानडे, राजर्षी शाहू यांनी देखील कुठल्याही जाती व्यवस्थेला न जुमानता, खऱ्या अर्थाने त्यावेळेला समाजाच्या विविध पंरपरांना आणि रुढींना तोडण्याचा व नवीन प्रबोधन करण्याचा आटोकाट प्रयत्न केला. तसेच सावित्रीबाई, रमाबाई रानडे, फ़ातिमा बेगम, रुख्मिणी राउत या स्त्रीशक्तींनी स्त्रीजातींवर होणाऱ्या अन्यायावर व स्त्री उद्धारासाठी स्त्रीशिक्षणाची कास धरुन अमुलाग्र बदल घडवला.
भुतकाळातील एवढया महान थोर समाजसुधारकांचे योगदान मिळुन देखील आजही समाजामध्ये जाती व्यवस्था टिकून आहे याचेच नवल वाटते. अनेक वर्षे उलटून गेली विज्ञानाची प्रगती झाली तरीदेखील मानसाने जाती धर्मांचा पगडा काही अजून टाकला नाही.
विज्ञानाचा विषय निघाला तर, विज्ञानाच्या फायदया आणि तोटयांचे जाळेच आपल्या समोर येते. वास्तवीक कुठलीही नवीन संकल्पना किंवा शोध हा मानव कल्याणाच्या दृष्टीकोंनातूनच लावण्यात येतो, म्हणजे विज्ञानाच्या शोधाने किंवा तंत्रज्ञानाने मानव जीवन कसे अधिक सुखकारक होईल याचाच विचार केला जातो परंतू परिस्थितीचा आणि स्वार्थी मानवी स्वभावाचा विचार करता असे दिसून येते की, मानवाने स्वत:च्या स्वार्थासाठी विज्ञानाचा व नवनवीन तंत्रज्ञानाचा दूर उपयोगही केला आहे. त्यामुळे सुखी जीवनाचे स्वप्न कदाचित भविष्यात भयावह सत्यात उतरु नये एवढीच अपेक्षा.
जगाच्या पाठीवर संपूर्ण पर्यावरणाचा व हवामानाचा अभ्यास केल्यास असे लक्षात येते की पर्यावरणामध्ये जो हानिकारक बदल झपाटीने होत आहे तो ऐवढा गंभीर होत चालला आहे की कदाचित मानवाने याकडे थोडेही दुर्लक्ष केले तर भविष्य संकटात सापडण्याचे चिन्ह आहेत.
आजच्या वेळेल्या संपुर्ण पर्यावरण आणि त्याचे जतन हा अत्यंत महत्त्वाचा विषय असुन हाच धर्मं मानून सर्वांनी या धर्मपालनासाठी आटोकाट प्रयत्न करावे. संत तुकारामांना कदाचित हीच गोष्ट खुप आधी उमगली असावी म्हणून ते आपल्या अभंगात म्हणतात. वृक्षवल्ली आम्हा सोयरे वनचरे, ज्याप्रमाणे आपण आपल्या सग्या-सोयऱ्यासांठी नातलगासाठी आणि समाजासाठी भांडत सुटतो. त्याच प्रमाणे या वृक्षांच्या जतनासाठी त्यांचा संवर्धनासाठी आपणा सर्वांना पुढे येण्याची फार गरज आहे. कारण वृक्ष हा देखील पर्यावरणाचा एक अभिन्न भाग आहे.
पर्यावरणाचा ऱ्हास, दुष्काळ, पूर, वातावरणातील बदल यासर्व गोष्टीमुळे केवळ एखादया विशिष्ट समाजावर नाही तर संपूर्ण प्राणी मात्रांवर आणि सजीव व निर्जीव या सर्व घटकावंर प्रतिकूल परिणाम झाल्याचा आपल्याला दिसून येतो. या जमिनीवर उभे राहून आपण जाती – जातीमध्ये दंगे करतो, आरक्षणासाठी आंदोलने करतो भांडतो, दहशतवादी स्वत:चे अस्तीत्व टिकवीण्यासाठी अनेक राष्ट्रावर हल्ले करतात, तीच जमीन नष्ट झाली तर काय ? हा विचार किती गंभीर आहे. प्रत्यक्ष परिस्थिती ओढावली तर काय ? याची कल्पना आपणा सर्वांना करता येईलच?
मग ऐवढा बिकट पर्यावरण ऱ्हासाचा, हवामान बदलाचा आणि त्याच्या सर्व दुष्परिणामाचा प्रश्न आपणा सर्वांसमोर असतांना या जमिनीवरील सर्व समाजांनी का डोळे लावून घेतलेत ? हे सर्व प्रश्न का नाही कुठल्या समाजाला दिसत ? का नाही पर्यावरणाच्या संवर्धनासाठी एखादा संपूर्ण समाज एकजूट घेऊन आंदोलन करत किंवा का नाही कार्य संघटन तयार करत. प्रश्न अनेक आहेत.
आपण माणसे खरंच थोडेही सुज्ञ असतो ना तर आपण कधीही गाडगे बाबांना विसरलो नसतो किंवा आपण गांधीजींनाही विसरलो नसतो. कारण या थोर महात्मांनी आपले संपूर्ण आयुष्य हे सर्व मानव समाजाला सुखी करण्यासाठी व्यतीत केले.
गाडगेबाबा कुठल्याही शाळेत गेले नव्हते तरी देखील त्यांना शिक्षणाची फार आवड होती त्यांचे विचार फार महान होते. त्यांच्या महान विचारातून उदयाला आलेल्या धर्मशाळा आजही शेकडो ठिकाणी जनहीताची कार्य पार पाडत आहेत. महात्मा गांधीनी आणि गाडगे बाबांनी दिलेल्या स्वच्छतेचा मंत्र आपण तेव्हापासून पाळला असता तर पंतप्रधानांना स्वच्छता अभियानावर करोडो रुपये व्यर्थ घालवण्याची वेळ आली नसती उलट ह्याच करोडो रुपयातून कुठल्याही मागासलेल्या समाजाला किंवा निडी कम्यूनिटी म्हणजे गरजू समाजाला मग तो उच्च असो व नीच त्या समाजाच्या उध्दारासाठी मदत झाली असती. इतका महान आणि मोलाचा स्वच्छतेच्या मंत्र गाडगेबाबा आपल्याला किती वर्षाआधीच देऊन गेलेत, तरी देखील आपण तेथेच आहोत.
सुंदर बहुगुणांनी वृक्षतोड थांबविण्यासाठी चीपको मुव्हमेंटचे आंदोलन फार वर्षापुर्वीच केले होते. त्यामध्ये अनेक स्त्रीया सहभागी झाल्या होत्या. तसेच मेधा पाटकर यांनीसुध्दा नर्मदा बचाव आंदोलन यशस्वी केले. अन्ना हजारे यांनी आपले राळेगनसीध्दी हे गाव पाणी वाचवा आणि पाणी जीरवा, या म्हणीचा अवलंब करुन अनेक वॉटरशेड मॅनेजमेंट सारखे प्रयोग करुन आपल्या गावाला जगाच्या पाठीवर एक वेगळे स्थान प्राप्त करुन दिले. ही थोर मंडळी खऱ्या अर्थाने महान व दुरगामी समाज हिताचा विचार करणारी आहे. कारण त्यांनी कधीही कुठल्याही समाजाचे प्रश्न पुढे आणुन त्यांच्या आरक्षणासाठी भांडण्यापेक्षा संपूर्ण मानवजातीला भेडसावणाच्या समस्येला हात घालत, त्या उचलून धरुन त्यासाठी आंदोलने केली व अनेक पर्यावरणाला अनुकूल अशा उपाययोजना आखुन योग्य व यशस्वी व चीरकाळ मानव हीत जपणारा मार्ग शोधून काढला.
वेगवेगळ्या समाजातील तरुणांनी, नवोदीतांनी आपल्या समाजाबद्दल आदर ठेवलाच पाहीजे परंतू आपला समाज हा दुसरा-तिसरा कोणी नसून या देशाचा एक घटक आहे. हे आधी लक्षात ठेवले पाहिजे. स्वत: समाज हितासाठी देशाच्या हिताचाही विचार केला पाहिजे. समाज आरक्षण मिळवीण्यासाठी सार्वजनिक साधन संपत्ती व सरकारी यंत्रनेला नुकसान करुन स्व:समाज हीत साधन्यात कुठेही सुविचाराचे दर्शन होत नाही हे लक्षात घेतले पाहिजे.
सर्वच समाज घटकांनी बदलत्या परिस्थितीला जुळवून घेण्याचा प्रयत्न केला पाहिजे कारण जो काळासोबत चालत नाही तो काळामागे पडतो. म्हणून जाती व्यवस्था, आरक्षणे, आंदोलने भांडणतंटे बाजूला ठेवून प्रगतीच्या मार्गाने चालण्याचा प्रयत्न आपण केला पाहिजे. कारण येता काळ आपल्याला आपल्या विचार बदलांची अत्यंत गरज असल्यासाठी खुनावत आहे. वेळीच आपण या जाती व्यवस्थेच्या आणि आरक्षणाच्या जबड्यातून बाहेर पडलो नाही तर भविष्यातील वेळ आपल्याला सावरण्यासाठी देखील वेळ देणार नाही. विचार करायचाच झाला तर तरुणांनी एकत्र येऊन व समाजातील सर्व सामान्यांना एकत्र आणुन पर्यावरण जागृती व संवर्धनासाठी कार्य केले पाहिजे. विविध कार्यक्रमाचे आयोजन केले पाहिजे. कारण येणारी वेळ याच बदलासाठी आपणा सर्वांना खुणावत आहे.
पर्यावरण संवर्धन हे फक्त कुठल्या पर्यावरण मंत्रालय किंवा सरकार किंवा वेगवेगळ्या जागतिक संघटना याचेच काम नसून हे प्रत्येक देशाची, प्रत्येक समाजाची, प्रत्येक मानसाची गरज आहे. कारण या सर्व पृथ्वी तलावावर राहणाऱ्या माणसांमध्ये जरी एकमेकांमध्ये भेदभाव केला तरी पर्यावरण किंवा सृष्टी कोणाही बरोबर भेदभाव करत नाही म्हणून ही संपूर्ण पृथ्वी, ही जमिन आपणा सर्वांचीच आहे व त्यासाठी कार्य करण्याची गरजही आपणा सर्वांचीच आहे. प्रत्येक मनुष्य हा स्वत:च्या गरजा भागविण्यासाठी आपल्या आजुबाजुच्या वातावरणाचा पुरेपूर लाभ घेतो. कारण प्रत्येक मनुष्य तो आपला हक्क समजतो. म्हणून प्रत्येक व्यक्तीचे कर्तव्यही पर्यावरणा विषयी तेवढेच हक्काचे आहे.
प्रत्येकाने कुठल्याही वस्तूचा गरजेपेक्षा जास्त वापर करु नये मग तो स्वस्त असो व महाग आपण एक उदाहरण घेऊ या अनेक श्रीमंत व्यक्ती किंवा अन्नधान्याने परीपूर्ण असे लोक गरजेपेक्षा जास्त खाऊन अनेक आजारांना आमंत्रीत करतात आणि वेगवेगळ्या रासायणिक औषधांवर अवलंबून राहतात. बाजारात त्यामुळे वाढत्या आजारांची वाढत्या औषधनिर्मिती कारखान्यांची संख्या झपाट्याने वाढत आहे व औषध निर्मितीसाठी लागणाऱ्या कच्च्या मालासाठी अनेक प्रकारची वृक्षतोड साधनसंपत्ती यांचा ऱ्हास केला जात आहे. त्याचबरोबर वाढत्या लोकसंख्येमुळे अन्नाची मागणी वाढत आहे. जगाच्या पाठीवर अनेक लोक आजही उपाशीच झोपतात किंवा लाखो लोकांना एकवेळचे अन्न देखील मिळत नाही. एकीकडे अशी परिस्थिती असताना दुसरीकडे आपण अन्नाचा अतिवापर व अपव्यय करत आहोत. वापरापेक्षा जास्त अन्न अतीवापर आणि साठल्यामुळे वाया जाते आहे. जास्त अन्ननिर्मितीसाठी जमिनीचा जास्तीत जास्त वापर व रासायणीक खतांचा अतीवापर यामुळे जमीन निर्जीव बनत जात आहे. म्हणून प्रत्येक समाजाचे कर्तव्य बनते की आपली लोकसंख्या ही नियंत्रीत ठेवण्याचा प्रयत्न केला पाहिजे. समाज सर्वांगाने सशक्त बनन्यासाठी झटले पाहिजे. लोंकाना शिक्षण व चांगले आरोग्य राखण्यासाठी सामाजीक कार्यकर्तांना प्रेरीत केले पाहिजे. लोंकाना स्वच्छतेबद्दल जागृत करुन त्यांच्याकडून सार्वजनिक स्वच्छतेचे कामे करवून घेतले पाहिजे. त्याच बरोबर वैयक्तीक व सार्वजनिक स्वच्छता राखणे त्यांच्यावर बंधनकारक केले पाहिजे. त्यासाठी अनेक संघटना पूढे आल्या पाहिजेत आणि कार्यक्रमांचे आयोजन केले पाहिजे. हे सर्व प्रत्येक समाजातून पुढे यायलाच पाहिजे लोकसंख्या वाढीच्या, शिक्षणाच्या, रोजगार संधीच्या व त्यासाठी आरक्षणाच्या ज्या समस्या निर्माण झाल्या यांची जाणीव आपण समाजाच्या प्रत्येक घटकाला करवून देऊन तशी त्यांच्या कडून कृती होईल यादृष्टीने कटीबद्ध असले पाहिजे. कारण लोकसंख्या वाढ व त्यातून निर्माण होणाऱ्या अडचणी व त्यावरील सरकार कुठली धोरणे आखणार व ती कशी अयशस्वी होणार याची वाट व मजा पाहत बघण्यापेक्षा ते प्रत्यक्ष कृतीत उतरवण्याचा अट्टाहास प्रत्येकाला असायलाच हवा.
कारण या सर्व समस्येमुळे प्रत्येक समाज, समाजातील प्रत्येक घटक प्रतिकूलरीत्या प्रभावीत होतो, मग आपणच आपले प्रश्न सोडवण्यासाठी सक्षम असलो तर कोणत्या योजनांची आणि धोरणांची वाट बघण्यासाठी वेळ का वाया घालावा? आरक्षण कसे मिळेल यापेक्षा आपल्या समाजाला आरक्षणाची गरजच कशी भासणार नाही यादृष्टीने प्रत्येक समाजाच्या नेत्याने आप आपल्या समाजाला सक्षम बनवले पाहिजे.
ज्या समाजातील लोकांना आरक्षण घेता येत नाही अशा बऱ्याच उच्च समाजाने आपआपल्या समाजाच्या विकासासाठी अशी दारे उघडण्याचा प्रयत्न केला आहे. जेथे आरक्षण ही गोष्टच अस्तीत्वात नाही जसे की अनेक खाजगी क्षेत्रामध्ये, उदयोगधंदयामध्ये, परदेशामध्ये त्यांनी आपल्या बुद्धीच्या बळावर कौशल्यावर तसेच बदलत्या वेळेप्रमाणे स्व:तच्या समाजांमध्ये बदल करुन नवनवीन संकल्पनांची कास धरुन उच्च भरारी घेत आपल्या समाजाला आजही प्रगती पथावर ठेवले आहे. ते लोक आरक्षण मिळविण्यासाठी आंदोलने, भांडणे करण्यात वेळ, बुद्धी व शक्ती व्यर्थ दौडवण्यापेक्षा एकजुटीने ऐकत्र येऊन ऐकमेंकाना मदत करत संपूर्ण समाजाला नवनवीन वाटा निर्माण करत प्रगती करत आहेत. आपणही आरक्षणाच्या मागे सर्वकाही व्यर्थ दौडण्यापेक्षा असेच आपल्या समाजामध्ये नवनवीन चैतन्य निर्माण करत नविन दारे उघडली पाहिजे, जेणेकरुन समाज स्वकष्टाने दिमाखात उभा राहील, आणि स्वत:ची व देशाची प्रगती साधेल !
(राणी अमोल मोरे)
कवियत्री, लेखिका, कृषितज्ञ
Thursday, October 19, 2023
स्त्री हा गहनतेचा विषय आहे, अस्तित्वाचा विषय आहे, गंमतीचा किंवा सहज चर्चेचा नाही!
काहींना महिला हा विषय मुळात गंमतीशीर वाटत असेल तर कृपया मला माफ करा. कारण माझ्याकडून अशा अपेक्षा केल्या जातात की तुम्ही महीला या विषयावर काही गंमतीशीर लिहा कारण त्यांचा वाचक वर्ग अधिक आहे. महिला ह्या काय सोशल मिडीयाच्या कारखाण्यातील हास्यांचे चुटकुले बनविण्यासाठीचे रॉ-मटेरियल आहेत, की त्या फक्त गंमत जंमत म्हणून वाचायचा, हसायचा आणि डिवचून विसरुन जायचा विषय झाल्यात.
भारता सारख्या समृद्ध आध्यात्मिक आणि पुरातण संस्कृतीमध्ये महिला किंवा स्त्रीया हा उच्च कोटीचा पुजणीय विषय आहेत, विषयचं नाही तर उच्च कोटीच्या जीवनाचा अविभाज्य घटक आहेत. या देशात स्त्रियांची संवेदना, त्यांचा आदर त्यांची कल्पकता, कलात्मकता आणि त्याचं स्त्रीत्व म्हणजेच स्त्रीगुन यावर संशोधन, विचार मंथन होण्या इतपत वाव असतांना देखील, तो कोठून बरे गंमतीचा विषय झाला आणि या प्रगल्भ समाजाने त्याचा स्वीकारही कसा काय केला आणि खासकरून स्त्रीजातीने आपल्यावर होणा-या या हास्याच्या प्रयोगाला विरोध न करता त्याला तसेच चालू ठेवण्यास वाव का बरं दिला याचंच नवल मानावं लागेल.
(स्त्री फक्त भोग्य आहे.)
कधी पुरातण काळी स्वत:ला ज्ञानी पंडीत म्हणवणा-या महंतानी सांगीतले होते की मुळात स्त्रीकडे चेतना, आत्मा वगैरे काही नसते, ती फक्त पुरुषांकडेच असते, म्हणून जशी पुरुषाला आध्यात्माच्या मार्गावर गेल्यावर मुक्ती मीळते तशी स्त्रीला मीळत नाही. स्त्री फक्त भोग्य आहे. मग मला या महंताना विचारायचे आहे. ती आदिशक्ती महाकाली कोण होती जिने दानवांचा शिरच्छेद करुन रक्त प्राशन केले, ज्या दानवांनी तीला भोग्य समजले, तीला कमी लेखले, त्याचं काय झालं हे आपण मोठया अभिमानाने सांगत फिरतो.
नंतरच्या काळामध्ये स्त्रीवर जो अत्याचार झाला, तीला गुलामगिरीच्या सक्त बेडयामध्ये डांबवलं गेलं ते तर अविश्वसनीय आहे. या गुलामगीरीच्या खुना इतक्या खोलवर रुजल्या की जणू स्त्रीच्या जनुकावर त्याची कोडिंग होऊन त्या पिढ्यान पिढ्या सतत स्त्रीमध्ये उतरत गेल्या. ती मुक्त झाल्यानंतरही तीच्या मनावर स्त्री ही फक्त भोगाची वस्तू आहे असा प्रभाव झाला. तो प्रभाव आजही कायम दिसतो, फरक फक्त एवढाच की तेव्हा तीला हे सांगाव लागलं आणि आता मात्र ती तो विचार घेऊनच जन्माला येते. आपण नेहमी म्हणतो की इंग्रजांनी आपल्यावर राज्य केलं आणि आपल्याला त्यांची गुलामी बळजबरीने स्वीकारावी लागली. परंतू स्वातंत्र्यानंतरही आजच्या समाजात असं दिसुन येते की इंग्रज भौतीक दृष्टया येथून गेले असले तरी मानसीक दृष्टया ते आपल्यामध्ये आजही टिकून आहेत. आताची ही पाश्चात्य गुलामी भारतीयांनी स्वत: स्वीकारली आहे. त्यांना स्वत:ची संस्कृती व भाषा पाश्चात्य देशांपेक्षा हीन वाटते.
(तीने काहीशी गुलामी स्वत:च स्वीकारली आहे.)
तसंच काहीसं स्त्रीच झालं आहे. आजच्या समाजात स्त्री शिक्षीत व मुक्त असुनही तीने काहीशी गुलामी स्वत:च स्वीकारली आहे. उदाहरणासहीत स्पष्टीकरण दयायचं झालं तर जेव्हा ती स्वत:ला आरश्यात बघते, तेव्हा ती स्वत:ला स्वत:च्या दृष्टीने न बघता पुरुषांच्या दृष्टीने बघते, म्हणजे एखाद्या पुरुषाने तिच्याकडे बघीतल्यानंतर त्याला काय आवडेल त्या अनुषंगाने तिचा श्रृंगार अधिक झुकलेला असतो आणि तसच काहीसं वागणं देखील अंगीकृत केललं असतं. ब-याच वेळेला एखादा पोषाख तिच्या प्रकृतीसाठी व्यवस्थीत किंवा कम्फर्टेबल नसतो आणि तीच्या सहजतेसाठी देखील अडचणीचा असतो, तरीसुध्दा तो फॅशन च्या नावाखाली परीधान केला जातो.
भगिनींनो विसरू नका तुम्ही स्वत:मध्येच अद्भूत आहात, सर्वस्व आहात !
भगीनिंनो तुम्ही कारखाण्यातुन तयार झालेलं प्रोडक्ट आहात का? की शोभेच्या वस्तू आहात? ज्याला विकत घेणा-यांच्या किंवा बघणाऱ्यांच्या हीशोबाने पॅकेजींग किंवा नटण्याची गरज पडते. ते करा जे स्व:ताला सहज, सरळ आणि उपयोगी आहे. विसरू नका तुम्ही स्वत:मध्येच अद्भूत आहात. तुम्हीच आहात सर्व आणि ते सर्वस्व तुम्ही स्वतःमधूनच उत्पन्न करू शकता बाहेर शोधण्याची गरज तरी काय? स्वत:च्या विचारांच्या गहनतेमध्ये उतरुन स्वत:ला फुलवत चला, दुस-यांच्या आवडी नीवडीचा विचार फूलवण्यापेक्षा स्वत:च्या मनाचा विचार करा. इतरांना डोक्यावर घेण्याची गरज तरी काय ?
(स्त्री-पुरुषांची विवीधता या जगण्याला आणखी सुशोभीत बनवते)
स्वत:ला कमी किंवा जास्तही न लेखता, जे गूण तुमच्याकडे आहेत त्यांच्या तळाशी जाऊन स्वत:च्या व्यक्तीमत्वाचा विकास करा. काय गरज आहे तुम्हाला कोणाच्या बरोबरीत किंवा अधिपत्याखाली जगण्याची तुमचं जगणंच मुळात वेगळ आहे, ते तुम्ही तुमच्या पद्धतीने पुर्ण जगा. जगतांना विविधतेची गरज असते बागेमध्ये वेगवेगळी फुले वेगवेगळया रंगाची गंधांची अधिक शोभून दिसतात. तसंच हे जग एक बगीचा आहे, ज्यामध्ये स्त्री-पुरुषांची विवीधता या जगण्याला आणखी सुशोभीत बनवते, फुलवते. स्त्री फक्त स्त्रीच होऊ शकते तीला पुरुष बनण्याची गरजच नाही?
तुम्ही जगत आहात, मोकळा श्वास घेण्यासाठी, आजवर मोकळा श्वासही खुप घेतला, आता भरपूर मनसोक्त श्वास घेण्याची वेळ आली आहे. सोबतच एका नवीन विश्वात प्रवेश करण्याची कारण “तुच सृजन, तुच नवनिर्माण, तुच अंत, तुच अनंत”.
(दुस-याला भरवण्याआधी स्वत:ला भरवून सक्षम कर)
दुस-या जीवाला जन्म देण्याआधी तू हा विचार कर तू जशी जन्माला आणल्या गेली आहेस तो तुझा जन्म तुला मान्य आहे का ? नसेल तर मग आधी स्वत:ला नविन जन्म दे. दुस-याला भरवण्याआधी स्वत:ला भरवून सक्षम कर. तू कोमलतेच्या उपमेखाली अबला कमजोर बनू नकोस. कारण एक जिवंत स्त्रीच एका जीवंत जीवाला जन्म देऊ शकते. मृतक विचाराने जन्म दिलेले जीव मृतकच जन्माला येतील, मृतकच जगतील आणि मरण्याचा तर वीषयच नाही ते जन्मालाच मृतक आलेले असतिल.
या मनुष्य जातीला नष्ट करण्याची ताकद जेवढी नैसर्गिक आपत्तीमध्ये आहे, तेवढी ताकद स्त्रीमध्ये देखील आहे. कारण तीने जन्म दयायचा का नाही हे जर ठरवलं तर ही मनुष्यता लवकरचं संपुष्टात येईल. सद्यास्थितीत जापान देशात हेच होतय, तेथील स्त्रीया लग्न आणि मूल यापासुन स्व:ताला दुर ठेवत आहेत परिणामत: जापानची लोकसंख्या झपाट्याने कमी होत आहे. हे जगातील सर्व देशाबरोबर होण्याची शक्यता आहे.
यावरुन आपल्याला लक्षात आलंच असेल की स्त्री हा गहनतेचा वीषय आहे. अस्तित्वाचा विषय आहे. गंमतीचा किंवा सहज चर्चेचा विषय नाही. जय हिंद, जय भारत!
-रानमोती-
(राणी अमोल मोरे)
कवियत्री, लेखिका, कृषितज्ञ
Friday, March 31, 2023
Subscribe to:
Posts (Atom)
Recent Posts
तू राजा मी सेवक (Vol-2)
- रानमोती / Ranmoti
Most Popular Posts
-
सध्या परिस्थितीचा विचार लक्षात घेता असे दिसून येते की मानसाला भविष्यामध्ये स्वत:ला माणूस म्हणून टिकून राहण्यापेक्षा स्वत:च्या जाती धर्मांची ...
-
“तुच सृजन, तुच नवनिर्माण, तुच अंत, तुच अनंत”. काहींना महिला हा विषय मुळात गंमतीशीर वाटत असेल तर कृपया मला माफ करा. कारण माझ्याकडून अशा अपेक्...
-
दूर दराज़ जंगल के पार बस्ती थी मेरी और परिवार सुन्दर नदी पेड़ों की मुस्कान बाढ़ का साया हरसाल तूफान एक टुटाफूटा घर मानो छाले पड़े जीवन पनपता उसम...
-
सांजवेळी पाखरे विसाव्या सांजावली रिमझिम रविकिरणे क्षितिजात मावळली चांदणी शुक्रासह पुन्हा नभी उगवली येशील तू परतुनी आस मना लागली स्मितफुलांची...
-
बहीण बघते भावाची वाट ओवाळणी कराया सजले ताट बहरून आली श्रावण पौर्णिमा दिसता बहीण सुखी झाला चंद्रमा सुरेख राखीला रेशीम धागे भाऊ उभा बहिणीच्या...
-
दोस्त एंटरटेनमेंट है आपके तनाव का दोस्त एक्सपीरियंस है आपके साथ का दोस्त डिटेक्टर है आपकी बुराई का दोस्त पैरामीटर हे आपके बर्ताव का दोस्त प्...
-
“ विज कर्मचाऱ्यांना ” अंधारात ठेऊन चालणार नाही ... कोरोना काळात आपण सर्वं अतिदक्षता विभागातील कर्मचाऱ्यांचे नेहमीच आभार ...
-
ग्राम पंचायती आणि सरकारी शाळांच्या भिंतीवर सुविचारांची रंगोटी झाली हे सारं पाहून आम्हाला वाटलं देश सुसंस्कृत आणि सुशिक्षित झाला वकिलीच्या अन...
-
सागर से मोती चुन के लाएँगे हे मातृभूमि हम फिर से तुम्हें सजाएँगे आए आँधी फ़िकर कहाँ है आए तूफ़ान फ़िकर कहाँ है तेरे प्यार में जीते जो यहाँ ह...
-
म्या होईन सरपंच माणूस रोकठोक सांगतो तुम्हाले आज बोलून छातीठोक माह्या संग हायेत जमाना भराचे लोक आसंन कुणात दम तर लावा मले रोक कालच म्या देल्ल...