
दूर दराज़ जंगल के पार
बस्ती थी मेरी और परिवार
सुन्दर नदी पेड़ों की मुस्कान
बाढ़ का साया हरसाल तूफान
एक टुटाफूटा घर मानो छाले पड़े
जीवन पनपता उसमे जैसे वृक्ष खड़े
हर दिन नया सवेरा जीने की आस थी
एक डरावने दिन और रात की बस बात थी
माँ की सांसो को हर पल हृदय नाप रहा था
नौ महीनो से सृष्टि की चाहत में तरस रहा था
शायद वह आखरी दिन था माँ की कोख में रहने का
उसकी भी चाह थी मै बाहर आऊँ आनंद लू जीवन का
माँ तड़प रही थी दर्द से मदद मांगती किसी मर्द से
शायद वह मेरा बाप था जो व्याकुल था मेरी उम्मीद से
उस टूटीफूटी झोपडी में बारिश गंगा रूप बरस रही थी
बाढ़ और तूफान से बस वही एक सबका सहारा थी
बड़ी कठनाई संग माँ की कोख छोड़ पैदा हुआ
पहिली बार किसी अनछुये स्पर्श का एहसास हुआ
आँखे खोलू की ना खोलू समझ में ना आया
दुनिया में दिन पहला था या आखरी जान ना पाया
एक माई आकर बोलने लगी यह बचेगा नहीं
यहाँ का माहौल इसे इसकदर जचेगा नहीं
चलो ले चलो इसे अस्पताल नदी पार कही
जहा मिले इसे सुविधा डाक्टर और इलाज सही
आँखे खोलने ही वाला था पर मै घबरा गया
सोचा खोल के भी क्या करू जब वक्त निकल गया
एक दिन की दुनिया की मोहब्बत में पड़ जाऊँगा
जो पाया नहीं देखा नहीं उसे भी पल में खो जाऊँगा
इस कश्मकश में जीवन की एक घड़ी बीत गई
चाह थी रोशनाई की अंधियारे संग मिटती गई
अचानक दो चार बस्तीवाले जमा होकर पास आये
एक झोली में डाल मुझे अपने साथ ले गये
शायद उन्हें नदी पार कर मुझे ले जाना था
बाढ़ तो मानो धरती पर निरंतर झरना था
लड़खड़ाते पाँव ले गये आखिर किनारे तक
दूसरी घड़ी भी बीत गई इंतजार में तब तक
मौत मंडराती रही जिंदगी घुटने टेक रही थी
आरोग्यसेवा ठप्प थी दरबदर सन्नाटे की गंध थी
सब छाती पिट हताश हो बस्ती को कोस रहे थे
कहानी ये उन सबकी हरसाल बस सोच रहे थे
आशा निराशा में बदल गई जब तीसरी घड़ी आई
हर किसी की उम्मीदों पर मातम की परछाई
ठण्ड से रोम रोम मेरा कांप सिकुड़ रहा था
भूख के मारे पेट ज्वाला बन तड़प रहा था
रोने का मन किया सोचा इन्हे बोल दूँ
अपनी मासूम सी भूख अब खोल दूँ
फिर मन ही मन मुस्कुराया और
खुदसे ही बोला सुन ज़रा रुक
एक दिन की तो समस्या है
बस एक दिन की समस्या
-रानमोती / RANMOTI
अत्यंत मार्मिक, भवनिक लिखान.. 👍
ReplyDeleteAfter 75 years of independence this situation in Tribal area shows unequal development. It should be address on priority.
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